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स॒मिधा॑ जा॒तवे॑दसे दे॒वाय॑ दे॒वहू॑तिभिः। ह॒विर्भिः॑ शु॒क्रशो॑चिषे नम॒स्विनो॑ व॒यं दा॑शेमा॒ग्नये॑ ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

samidhā jātavedase devāya devahūtibhiḥ | havirbhiḥ śukraśociṣe namasvino vayaṁ dāśemāgnaye ||

पद पाठ

स॒म्ऽइधा॑। जा॒तऽवे॑दसे। दे॒वाय॑। दे॒वऽहू॑तिभिः। ह॒विःऽभिः॑। शु॒क्रऽशो॑चिषे। न॒म॒स्विनः॑। व॒यम्। दा॒शे॒म॒। अ॒ग्नये॑ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:14» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:17» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब तीन ऋचावाले चौदहवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में संन्यासी की सेवा कैसे करनी चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे ऋत्विज् पुरुष और यजमान लोग (समिधा) दीप्ति के हेतु काष्ठ और (हविर्भिः) होम के साधनों और (देवहूतिभिः) विद्वानों ने प्रशंसित की हुई वाणियों के साथ (अग्नये) अग्नि के लिये प्रयत्न करते हैं, वैसे (नमस्विनः) अन्न और सत्कारवाले (वयम्) हम लोग (जातवेदसे) उत्पन्न पदार्थों में विद्यमान (शुक्रशोचिषे) वीर्य्य और पराक्रम से दीप्तिमान् तेजस्वी (देवाय) विद्वान् संन्यासी के लिये अन्नादि पदार्थ (दाशेम) देवें ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे दीक्षित लोग अग्निहोत्रादि यज्ञ में घृत की आहुतियों से होम किये अग्नि से जगत् का हित करते हैं, वैसे ही हम अनियत तिथिवाले संन्यासियों की सेवा से मनुष्यों का कल्याण करें ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ यतिः किंवत्सेवनीय इत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथर्त्विग्यजमानाः समिधा हविर्भिरग्नये प्रयतन्ते तथा नमस्विनो वयं जातवेदसे शुक्रशोचिषे देवाय यतयेऽन्नादिकं दाशेम ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (समिधा) प्रदीपनसाधनेन (जातवेदसे) जातेषु विद्यमानाय (देवाय) विदुषे (देवहूतिभिः) देवैः प्रशंसिताभिर्वाग्भिः (हविर्भिः) होमसाधनैः (शुक्रशोचिषे) शुक्रेण वीर्येण शोचिर्दीप्तिर्यस्य तस्मै (मनस्विनः) नमोऽन्नं सत्कारो वा विद्यते येषां ते (वयम्) (दाशेम) (अग्नये) पावकाय ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा दीक्षिता अग्निहोत्रादौ यज्ञे घृताहुतिभिर्हुतेनाग्निना जगद्धितं कुर्वन्ति तथैव वयमतिथीनां संन्यासिनां सेवनेन मनुष्यकल्याणं कुर्याम ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात अग्नीच्या दृष्टांताने यती व गृहस्थाच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे संस्कारित व प्रशिक्षित लोक अग्निहोत्र इत्यादी यज्ञात घृताची आहुती देऊन होमातील अग्नीने जगाचे हित करतात तसेच आम्ही अनिश्चित तिथी असलेल्या संन्याशाची सेवा करून माणसांचे कल्याण करावे. ॥ १ ॥